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कल्पना।

अगर देखा जाए तो इस दुनिया मे जो कुछ भी होता है सब ‘काल्पनिक’ है जो भी हम करते हैं जो कुछ भी हो रहा है सब कुछ, चाहे वह हमारी असली ज़िंदगी से वाक़िफ़ हो या फिर कोई पुरानी मिथ्य। अभी कुछ दिन पहले मैंने एक लेख पड़ा था जो की इसी बात पर था कि हम किसी चीज के बारे मे सुन लेते हैं या किसी ने वह कर के दिखा दिया तो हम उसको सच मानने लगते हैं लेकिन क्या उस चीज को हम इस दुनिया के हर कोने मे करें तो वह बिलकुल वैसा ही होगा, यह हम कैसे बता सकते हैं जबकि हमे इतना पता है कि हमे इस दुनिया का हर कोना ही नही पता और हम वहाँ जा भी सकते हैं या नही, तो इसे हम सिर्फ मान लेते हैं कि हाँ ऐसा होता होगा। 

बचपन से हम हर चीज़ की कल्पना ही तो करते आए हैं जैसे मैं कोई कहानी सुनती थी तो उस कहानी से मैं ख़ुद को जोड़ती थी कि वहाँ पर मैं हूँ और ऐसा सब कुछ मेरे साथ हो रहा है । सबसे पहले हम किसी चीज़ की कल्पना करने लगते हैं और फिर उसको वैसा ही मानने लगते हैं । 

जैसे अभी मैं जो भी लिख रही हूँ वह भी तो काल्पनिक है क्योंकि यह सब जो लिख रही हूँ जो भी यह शब्द हैं यह भी तो किसी ने बनाए हैं तो इन्हे बनाने मे भी तो किसी ने सबसे पहले कल्पना की होगी फिर अक्षर बनाए और सब ने मान लिया है कि किस शब्द को क्या बोलना है कहाँ उसका इस्तेमाल करना है बस फिर इस तरीक़े से सब ने मान लिया तो वह चल पड़ता है ।

जैसे विज्ञान को हम विज्ञान क्यों बोलते हैं क्योंकि सिर्फ इसलिए कि किसी ने वह नाम दे दिया है और हम उसे मान रहे हैं क्या हमने कभी यह जानने की कोशिश की कि किसी चीज़ को या किसी बात को हम इतनी आसानी से क्यों मान लेते हैं, कम से कम हमे उस बात की पुष्टि तो करनी चाहिए की ऐसा वास्तव मे क्यों हो रहा है, हो सकता है की हम उस बात के अंतिम चरण तक न पहुंचे पर कम से कम उस बात पर चर्चा तो कर सकते हैं और हर किसी का जवाब जानने के बाद या प्रयोग करने के बाद अगर वह सच साबित होता है तब हम उस चीज को मान लेते हैं, जैसे आजतक मैंने सुना है कि धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है और सूर्य स्थिर है लेकिन आजतक देखा तो नहीं है और ना ही यह महसूस किया है कि हम धरती पर हैं तो हम घूम रहे हैं लेकिन सच तो है ना कि धरती घूमती है और हम सब इस बात को मानते हैं चाहे हमें महसूस हो या ना हो।

यह सब बातें आज तक मैंने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की कि ऐसा क्यों होता है आज तक बस जिसने जो भी करवाया और जो भी पढ़ाया बस उसको मान लिया कभी भी जानने की कोशिश नहीं की। शायद इसका सबसे बड़ा कारण यह रहा कि वैसा हमे किसी ने सिखाया ही नही की हम सवाल करें या अपनी बात आगे रखें। 

आज तक यह सोच बनी ही नहीं कि मैं किसी के सामने कोई सवाल करूँ बस हर चीज़ को सोच लेना कि ऐसा होता है, पर इस सब में ऐसा बिलकुल नहीं है कि किसी ने रोका या करने नही दिया लेकिन माहौल ही ऐसा था, न कभी किसी ने बोला न कभी मैंने किया।

फिर इसके बाद मेरा रहना उन लोगों के साथ हुआ जो कभी ऐसी बातों को मानने के लिए बिलकुल तैयार ही नहीं थे कि किसी ने कोई बात बोल दी और उन्होने वह बात मान ली उनको उस बात का प्रूफ़ तो नही पर कम से कम उस बात पर चर्चा करनी होती है, और सब का मानना है कि विज्ञान तो एक ऐसा विषय है जिस पर जब तक कोई बहस न हो तब तक उसको करने का कोई मतलब ही नहीं है, बेशक विज्ञान हमें अंतिम सत्य तक नहीं पहुँचाएगा लेकिन उस बात को मानने का पूरा प्रूफ़ देता है क्योंकि इसके आगे और कुछ रहता ही नहीं। इसी तरह रहते रहते अब मुझे भी किसी बात को बस मान नहीं लेना है उसको मानने का मुझे भी अब प्रूफ़ चाहिए और बोलते हैं ना कि:-

 

संगत चाहे अच्छी हो या बुरी अगर आप उस संगत में रह रहे हो तो कभी ना कभी आप भी उन्ही की संगत में आ जाते हो अर्थात आप भी वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं ।

तो बस मैं भी ऐसे लोगों की संगति में आ गई जो कल्पना तो करते हैं लेकिन उस को सच तभी मानते हैं जब तक प्रयोग करके न देखें। कल्पना करो लेकिन उस बात को तब तक सच मत मानो जब तक आपके पास उसको सच मानने का सुबूत ना हो ।।

बबली


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