कण्डबाड़ी नाम ही कितना अलग है मुझे नहीं लगा था कि यह अपने नाम जितना ही दिलचस्प होगा। चारों ओर धौलाधर पहाड़ियां, हिमाचल की सबसे बड़ी श्रेणी। इन पहाड़ियों की गोद में कण्डबाड़ी बसा है।
कहीं भी खड़े हो जाओ चारों ओर पहाड़ दिखते, एक बर्फीला पहाड़ भी दिखता। सोचता हूँ बर्फ के पहाड़ पर एक न एक दिन ज़रूर जाऊंगा। बेशक! अगर मैं सन 2000 के पहले धौलाधर श्रेणी तक आता तब मुझे बर्फीले पहाड़ तक ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। क्योंकि सुना हैं कि सन 2000 तक सामने दिखते सभी पहाड़ पूरे साल बर्फ से ढके रहते थे। पर अब नहीं, क्योंकि अब हम फ्रीज़र में बर्फ देख सकते हैं।
हिमाचल से मुझे कुछ दिन के लिए बिहार जाना था, तो सोचा क्यों न पहले थोड़ा अपने कण्डवाड़ी गाँव को घूम लूँ, बिहार जाने से पहले, इस कारण आविष्कार से मेरी पहली 6 घंटे की पैदल यात्रा शुरू हुई।
यहां पता चला घूमने की दो जगह अच्छी है जखनी माता मंदिर और लांघा। आविष्कार से निकल पड़ा था पर दुविधा में था कि लांघा जाऊ या जखनी माता। एक बुज़ुर्ग दंपत्ति से पूछा जो अपने घर गृहस्थी का कुछ काम निपटा रहे थे। उन्होंने बताया कि अकेले हो इसलिए जखनी माता जाना ठीक रहेगा। उन्होंने खाने को पूछा और चलने को कहने पर छोटा रास्ता बताया। रास्ते टेढ़े – मेढ़े, उबड़ – खाबड़, ऐसी पगडंडियां देख के नानी के घर की याद आ गई।
पक्की सड़क से चलना इतना अच्छा नहीं लगता इसलिए कोशिश करता की कच्ची सड़क से जाऊँ। सड़क गाँव को पूरब मे छोड़ते हुए पश्चिम में आगे बड़ रही थी, सूरज गर्मजोशी से स्वागत कर रहा था, आगे खुला आसमान था, पहाड़ स्वागत को बाहें खोले खड़े थे, एक सड़क का रास्ता था और दूसरा पहाड़ों पर से, जिसे मैं नहीं जानता था। कोशिश करता कि किसी नये रास्ते से चलूँ।fake Watches UK,Rolex Day Date Replica Watches,replica watches australia.
चलते चलते उस जगह पहुंचा जहां पर एक शाम को मै रुका था, वहां अच्छा लगा था। बगीचा जिसमे टूटे हुए पत्थरों का घर था। थोड़ा वहां पर रोशनी कम थी, सीडी नुमा हरी घास थी। वहाँ पत्थरो का टूटा हुआ घर था। पत्थरों में निकली झाड़िया बता रही थी यहां बहुत दिनों से कोई आया नहीं है जबकि कुछ दूरी पर ही गांव दिखता था। कुछ दूरी पर एक सड़क जाती दिख रही थी। आसपास काफी पेड़ थे,फूल थे। सूरज की रोशनी इधर उधर से झांकती और कोशिश करती कि कैसे इस जगह तक पहुंच जाए। कुछ देर वहां बैठा फिर ऊपर चल पड़ा इसके बाद एक और टूटा हुआ घर मिला जिसमें सिर्फ दो दीवारें ही बची थी। कई सूखी झाड़ियां उसमें निकली थी। एक रोशनदान था, पर अब उसका काम नहीं था। क्योंकि अब अँधेरा था ही नहीं, क्यूंकि दीवारे थी ही नहीं।
उसके आसपास काफी अच्छा नज़ारा था, थोड़ा ऊपर खड़े हो जाने पर तराई में बसा पालमपुर दिखता और उत्तर पश्चिम की ओर देखने पर ऊंचाई पर जाता हुआ पहाड़ और पेड़ दिखते और कुछ घर भी। जगह अच्छी लग रही थी तो मैं उसी दिशा में आगे बड़ा, एक बार तो लगा कि जैसे आसपास कोई रहता ही नहीं है और मुझे रास्ता मिलेगा ही नहीं। ऐसे में बाँस की चरचराहट भी अच्छी लगती इतनी आवाजें थी आसपास और सारी आवाज़ें एक दूसरे से क़ाफी मुख्तलिफ थी।
कुछ दूर तक चलते जाने पर सोचा कि अब मुख्य रास्ते पर आ जाना चाहिए नहीं तो इस तरीक़े से तो मैं जखनी माता तक नहीं पहुंच पाउँगा। आगे बढ़ता रहा, कुछ घर दिखे और कोशिश करता रहा की जल्दी से सही रास्ता पकड़ों। फिर मैं एक ऐसी जगह पहुंचा जो वाकई में मुझे बहुत अच्छी लगी । सामने अंधेरा था और मेरे पीछे भरपूर उजाला। जब मैं उसमें प्रवेश करता उजाला पीछे छूटता जाता और अंधेरा जो खूबसूरत था, में मैं प्रवेश कर गया।
सोचता इसकी खूबसूरती को निहारूं, फोटो लूँ, या अलग- अलग पंछियों की आ रही आवाज को रिकॉर्ड कर लूँ। क्या करूँ? ख़ुशी के मारे फूला नहीं समां रहा था|
ज़्यादा शान्ति भी अशांति फेहलाती है |
इस जगह मे घुसते ही एक 3 फ़ीट का पत्थर रखा हुआ था। इसके ऊपर आसानी से बैठा जा सकता था। उसके दाएं ओर से कुछ पत्थर की सीढ़ियां आ रही थी। सीढ़ियां जो खूबसूरत लगी, ऊपर किसी घर तक जा रही थी। मेरे आगे भरपूर सूखे हुए पत्ते पड़े हुए थे। किनारे भरपूर पेड़ थे जिन्हें शायद इसलिए लगाया गया था ताकि वह मिट्टी को आसानी से बांधे रख सके। कहीं-कहीं पर पत्थर की मोटी परतों का इस्तेमाल किया गया था ताकि मिट्टी गिरने से बच सकें। पगडंडी के दाएं और ऊंचाई पर जाता हुआ पहाड़, जिसकी पहली सीढ़ी पर कुछ खेती करने को बोया गया था। खेत के नीचे के हिस्से में लगे हुए पेड़ देख के लगता कि अभी गिर ही जाएंगे , पर नहीं गिरते क्यों की उन्हें किसी ने मिट्टी संभालने की ज़िम्मेदारी जो दी है। चार कदम आगे एक घर बना हुआ है जिसे इंसानी घर नहीं कहते। वह जानवरों के लिए होता। पर यूपी के गांव को सोचकर मुझे ऐसा लगा कि यह घर इंसान का है। फिर मैं सोचता क़ि ये बेचारे कितने गरीब है। यह धारणा मेरी गलत थी कि लोग गरीब है। और यह धारणा बहुत बार टूटी यहां पर।
दूर दूर तक देखने पर भी सिर्फ कुछ घर ही दिखते, वह भी दरख़्तों की आड़ में छुपे हुए। मैं कोशिश करता सब देख लूँ, सब जान लूं। न जाने कितनी चिड़ियों की आवाज़ें थी वहां पर, सभी स्पष्ट थी। शायद उन में बोलने की होड़ न थी। कोई आवाज पतली तो कोई मोटी, खराश भरी। यह जगह मुझे अच्छी लगी और लगभग डेढ़ घंटा बिताया|
अब मैं अंदर खड़ा था। सामने रोशनी भरा हुआ नीला आकाश और बहुत दूर देखने पर छोटे-छोटे पहाड़ दर पहाड़ धुंधले धुंधले। मैं कोशिश करता की फोटो खींच लूँ। कभी पत्थर की सीढ़ी पर बैठता तो कभी पत्थर पर बैठता। तब सामने देखकर बड़ा अच्छा लगता। देखकर ताज्जुब होता, लोग अपने रहने के स्थान को किस तरीके से व्यवस्थित रखते हैं, आसपास को नुक्सान पहुंचाये बिना।
मुझे यह बहुत सुकून देती, पर जिन्होंने जिंदगी मे सिर्फ खूबसूरती और अच्छी चीज़े ही देखी, उन्हें वो अच्छा, अच्छा कैसे लगता होगा। इतना सुकून, शांति कहीं बाहर जाने पर झुंझलाहट ना पैदा कर देती हो। इतना अच्छापन कही बाकी चीज़ों के प्रति नापसंदगी को बड़ा न देता हो?
2 बज चुके थे और अभी तक मै स्पैड़ू गांव तक ही पहुँचा था। सो चला आगे की ओर।
रास्ते में एक आदमी से पूछा कि मंदिर जाने का रास्ता क्या है तो उसने बताया कि नीचे रोड है वहां से पहुंच जाओगे। पर मै पहाड़ों के रस्ते से जाना चाहता था। सो मै पहाड़ की ओर चल पड़ा। अभी मैं एक पहाड़ पर था और जखनी माता दूसरे पहाड़ पर । मुझे समझ नहीं आ रहा था मैं कैसे जाऊं? रास्ता जो बना था मै उससे ऊपर जाने लगा। पहाड़ की काफी ऊंचाई पर पहुंच गया, जखनी माता मंदिर नीचे हो गया और मैं दूसरे पहाड़ की ऊंचाई पर। अब मुझे जल्दी से जल्दी नीचे उतरना था। जाने का रास्ता नहीं मिला तो एक दिशा मे चल पडा पर अंततः रास्ता मिल ही जाता। कभी-कभी रास्ता बना बनाया होता लेकिन जब दूसरी खूबसूरत पगडंडी दिखाई पड़ती तो मैं उधर भी देख आता। बारिश की बूंदें गिरना शुरू हो गई थी, मुझे भिगोती और मैं उन्हें रोकना भी नहीं चाहता था।
मैं रास्ता भटक चुका था। बस्ती में इधर-उधर घूम रहा था। यहाँ लोग अपने घरों के बहार बड़ा सा गेट नहीं लगाते हैं। कभी किसी के घर के बाहर पहुँच जाता तो कभी किसी दुसरे के। फिर एक शख्श ने भटके को रास्ता दिखाया और अब मैं सबसे नीचे उस रोड पर पहुंच गया जिससे जाने को वह पहाड़ वाला शख्स कह रहा था। रास्ता बेशक मेरा लंबा था लेकिन खूबसूरत था। लोगो को एक ही जगह जाना होता है, पर रास्ते अलग-अलग होते हैं और वह मायने रखते हैं।
ईवा खड्ड
दूर से लगता कि इवा ‘खड्ड’ (नदी का पतला रूप ) पार करना कितना आसान है पानी कितना कम है, पर पास जाने पर डरावना सा लगता।
कई बार ऐसा होता कि जो चीज़ दूर से आसान लगती, पास जाने पर चीजें कठिन हो जाती। बर्फीला पहाड़ दूर लगता लेकिन आगे के पहाड़ पर जाने पर और भी दूर लगता।
मैं 45 मिनट यही सोचता रहा कि नदी को कैसे पार करूँ। इलेक्ट्रिक पावरप्लांट के इधर उधर घूमता पानी की एक पाइपलाइन दिखती जो सीधे ऊपर को जा रही थी बरफीले पहाड की ओर।
कभी इधर जाता तो कभी उधर। इस तरह खुद को इधर उधर भटकाता। एक ओर बारिश हो रही थी कोई दिख नहीं रहा था, अब किसी इंसान की ज़रुरत थी। जिस्से रास्ता पोछा जा सके क्योंकि नीचे से मंदिर दिखना बंद हो चुका था। बारिश की बूंदे फुहार के रूप में गिर रही थी। डर बड़ा रही थी की पहाड़ पर कहीं फिसलन ना बड़ जाये या कहीं लौटते वक़्त बारिश नदी को भयंकर न बना दे। कइयों ने बताया था क़ि मै बेवजह कठिन रास्ता चुनता हूँ बिना सोचे समझे। दूसरे छोर की दूरी को भापकर उसे पार करने की तरक़ीब सोचता। थोड़ा डर लगता है पानी की धार देखकर कभी दूरी नाप कर छलांग लगाने की सोचता फिर बैठ जाता। नदी मे पड़े पत्थर पर बैठकर सोच रहा था कि वापस लौटना ही ढीक रहेगा। पानी की धार को देखे जा रहा था, फिर अचानक सोचने लगा की इस परिस्थि में अगर कोई योद्धा होता तो वो क्या करता, हुआ खडा और लगा दी छलांग। भले ही एक पैर रह गया नदी के पास, पर हो गई नदी पार।
चढ़ायी—
तो अब जखनी माता की चढ़ायीं करनी थी। जखनी मंदिर पहुँच गया। मंदिर 2011 मे बनाया गया था। शिव, हनुमान , गणेश, झकनी को लकड़ी पर नक़्क़ाशी कर उकेरा गया था, जिस पर फूलों को सजावट के तौर पर बनाया गया था। मंदिर इसलिए नहीं जा रहा कि मुझे जखनी माता के दर्शन करने है। बहुत सी मूर्तियां देखी, सब एक सी। उनके पास कुछ भी खास नहीं होता। बस नाम अलग होते। उनके पास प्रकृति की कोई खूबसूरत या ताक़तवर चीज़ होती जैसे गुलाब, कमल,चीता, शेर जो उनकी नहीं बल्कि इंसान की ही दी होती। आसपास का नज़ारा अच्छा था।
मेरी ख्वाहिश है कि मैं कण्डबाड़ी के किसी पहाड़ पर जाकर सनराइज और सनसेट होता देखूं। ये ऊंचे पहाड़ सब कुछ छुपा लेते हैं। नदी, झरने, हमारे हिस्से की भोर और सांझ भी। पर दिल से बडे लगते हैं।
पनाह देता हैं ये पहाड़ हर शख्स क़ो।
आते हैं लोग धूप से तपकर, बहलाने अपना अपना मन।
वो था दिलेर। सब कुछ उड़ेला उसने हर शख्स पर,
जितना आया उसके हाथ में सब।
हवा, पानी, फल -फूल, दरख्त , नदी, झरने- वरने सब।
हर शख्स तर जाता उसकी तरावट मे, झूम जाता उसकी फ़िज़ा मे, गुम जाता उसकी बनावट मे।
तुम उकता गए उससे भी, देखते खामियां अब उसमें भी।
तुम कहते, है फिसलन चीड़ के पत्तों मे, क्योंकि तुम गिरे थे कई दफा इन पत्तों पे।
था मकसद अब बस तुम्हारा एक ही, क्यों ना मिटा दूँ चीड़ की जड़ ही।
अब हर शाम को पहाड़ सुलगाया जाता, वो धधकता रात भर।
रात भर सीने में लगी आग मे वो सुलगता, पछताता अपने किए पर ।
थी उसे एक आस सिर्फ उस रात की, जो डालती थी डेरा उसके हर एक पात पर।
पर अब रात भी उसके पास ना आती ।
थी आग सीने में उसे पाने की, ना होती आग तो शायद आती रात भी।
वापसी—
आधे घंटे के बाद वापस नीचे आ गया। पुल पर खडा हो गया। देखने लगा बहते हुए पानी को।
ताज़्ज़ुब होता देखकर, एक तरफ पानी मे उथल-पुथल, चंचलता दिखती तो पुल के दूसरी ओर सहसा पानी एक दम शांत हो जाता। पहली तरफ पानी पत्थरो से ठोकरे खाता, कभी एक से टकराता तो कभी दुसरे से चोट खाता। भडबडाया सा इधर उधर भागता, वो जितना चोट खाता उतना ही मथा जाता, पानी की गुडवत्ता उतनी ही बड़ती जाती, दूध सा साफ लगता। वही पुल के दूसरी ओर उछलकूद मचाता पानी दो चट्टानों के कारण एकदम शांत सा बहने लगा।
मुझे ये सबकुछ इंसानो से मेल खाता लगता। कोई हमे चोट देता है जिससे हम मथथे है , तो कभी हमे ऐसा शख्स मिलता है जिसके साथ से सारी आपाधापी दूर हो जाती, सब कुछ शांत हो जाता, उन दो चट्टानो के साथ जैसा।। जितने ज़्यादा मोड़ आते हम उतना ही मथे जाते। पानी से टकराने वाले पत्थरो के जैसे। लोग हमारी जिंदगी में आते कोई गुस्सा दिलाता तो कोई हँसी दिलाता, तो कोई हमें शांत कर जाता।
थोड़ा सा आगे चलते ही उछलकूद मचाता पानी दो चट्टानों के बीच एकदम शांत सा बहने लगा।
आदमी को चाहिए की वो नदी सा बहता रहे, रास्ते मे तरह तरह के लोग आते है, पत्थरो के जैसे, चलता रहे।
वापस मुख्य सडक मार्ग से आया। रास्ते में दो पश्चिम बंगाल के मजदूर साथ मे थे जो दिहाड़ी कुछ ज्यादा और हक का सम्मान मिलने के खातिर यहाँ पर अपना श्रम देने आएं है।
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